गुरुवार, 2 मार्च 2017

वासना गजब है। पहले प्यार जताती है। फिर पाप का बोध।



20 February 2016 आतुर
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वासना गजब है। पहले प्यार जताती है। फिर पाप का बोध। रिश्तोंं की ऐसी डोर पाप से बंधी है या आत्मतृप्ति पुण्य है। समझना बेहद कठिन है। मन विचारों से विचलित है। प्यार हो या दोस्ती, विश्वासघात का अहम  कारण कामवासना हैं। अत: कामदेव के साथ साथ हम भी धिक्कार पात्र हैं। संदर्भ कहते हैं कि मनुष्य में बुद्धिमता, कुलीनता और विवेक एवं  उचित, अनुचित के निर्णय की क्षमता आदि गुण तब तक ही रहते हैं जब तक कामदेव द्वारा लगाई आग उसके अंगों में नहीं फैल जाती। कामाग्रि के उद्दीप्त होते ही मनुष्य के सारे गुण तत्काल जाते रहते हैं।
 अब यौवन के इस खेल में पाप क्या और पुण्य क्या?आत्मविशलेषण करूं तो लगता है कि संसार में पाप कुछ नहीं है। यह केवल मनुष्य का दृष्टिकोण है। प्रत्येक व्यक्ति एकविशेष प्रकार की मन प्रवृति लेकर पैदा हुआ है। प्रत्येक व्यक्ति इस संसार के रंगमंच पर एक अभिनय करने आया है। अपनी मन प्रवृत्ति को लेकर बस अपने पाठ को दोहराता है। यही मनुष्य का जीवन है। जो मनुष्य करता है वह उसके स्वभाव
के अनुकूल होता है और स्वभाव प्राकृतिक है। मनुष्य अपना स्वामी नहीं है,परिस्थितयों का दास है।स्वाभाविक है प्रत्येक मनुष्य सुख चाहता है। केवल व्यक्तियों के सुख के केंद्र भिन्न है। कुछ सुख धन को देखते हैं। कुछ मदिरा में। कुछ व्यभिचार में तो कुछ त्याग में, लेकिन सुख प्रत्येक व्यक्ति चाहता है। कोई भी व्यक्ति संसार में अपनी इच्छा अनुसार वह काम नहीं करेगा, जिससे उसको दुख मिले। यही मनुष्य की मन प्रवृत्ति है और उसके दृष्टिकोण की विषमता। संसार मेंं इसलिए पाप की परिभाषा नहीं हो सकी है। हम न पाप करते हैं न पुण्य करते हैं। हम केवल वह करते हैं, जो हमे करना पड़ता है।

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