शनिवार, 3 जून 2017

रिवालसर: श्रद्धा की त्रिवेणी से एस्सपरेसो मैक्यिैटो तक

......आतुर (२1 मई रविवार 2017)

रिवालसर: श्रद्धा की त्रिवेणी से एस्सपरेसो मैक्यिैटो तक


         झील। चारों ओर मध्य पहाडिय़ां। दरख्त, पानी और मंद हवाओं के बीच पल रही तीन संस्कृतियां। श्रद्धा की त्रिवेणी (रिवालसर) की फिजा के कशिशपन में अजब सी रूहानी महक  है। रूचिकर लोगों के लिए अवश्य ही प्राचीन रिवाल गांव के सर यानी सरोवर की परिक्रमा हिंदू, बौध और सिक्ख धर्मों का आध्यात्मिक आभास दिलवाने वाली हो सकती हैं। लेकि न धार्मिक और प्राकृतिक सौंदर्य के बीच मुझ जैसे को कैसे, क्यों, कब और कहां की दंत्त कथााएं पारंपरिक भोजन के बाद एस्सपरेसो मैक्यिैटो (रोस्ट ग्राइंडिड कॉफी विद  ड्राप आफ मिल्क फाम/फ्राद) जैसी एक कड़क काली काफी के शाट के साथ मिल जाए तो क्या कहने रूह को वैसे ही हर तरह का सुकून मिल जाए। बिलकुल ऐसी ही हुआ।





        ..........मंडी के साऊथ वेस्ट की तरफ करीब २५ किमी का सफर थका देने वाला था। सूरज की तपिश आग उगल रही थी। बामुश्किल थके हारे पसीने से लथपथ स्वीटहार्ट केया के साथ करीब डेढ़ बजे रिवालसर पहुंचे। बस खड़ी होने वाले स्थान से दाहिने हाथ  नगर पंचायत रिवालसर के गेट से अंदर की तरफ एंट्री ली। थकान और गर्मी के बीच झील भी धुंधली लगे। मुख्यद्वार के सामने बने हवाबंगलू में ही बैठ गए। साथ ही एक बुद्घिस्ट महोदय ऋगजेन झील के पानी को बड़ी उत्सुकता और ध्यान से देख रहे थे। रिवालसर के बार में थोड़ा बहुत सुना था कि यहां झील है, बाकी कोरे कागज की तरह था। उनके ध्यान को देखकर उत्सुकता हुई पूछा तो बोले मिट्टी के टीले तैरते हुए देख रहा हूं। इसके दर्शन किसी दैविक चमत्कार से कम नहीं।  गुरू पद्मसंभव की पावर रूह ऐसे टीलों पर विराजमान होती है। प्राकृति की यह लीला केवल पुण्य कर्म करने वालों को दिखाई देती है। वहीं हिंदू और सिक्ख धर्म में भी सरकंडों के तैरते हुए दिखने में आस्था जुडी है। यकीन मानिए हमे भी वह दिखे।
    तभी दोपहर बाद रिवालसर बारिश और धुंध के आगोश में लिपट गई। हलकी हलकी ठंड दिमाग और शरीर में स्फूर्ति का संचार करने लगी। उत्सुकता बढ़ी तो महोदय ने बताया कि यहां परिक्रमा करिए। रिवालसर झील के किनारे तीन बौद्ध मठ मोनास्ट्रियां हैं जो निग्मया पंथ से संबंधित हैं। इन मठों में से एक भूटान के लोगों का है। इसके अतिरिक्त भगवान कृष्ण, शिव जी तथा लोमश ऋ षि के मंदिर हैं। बस बेहतरीन मौसम के बीच इस तरह के स्टेशन को करीब से देखने और जानने का मौका मिले तो क्या चाहिए थे। हलकी बारिश के बीच निकल पड़े परिक्रमा करने। 

    परिक्रमा: लक्की था हर संस्कृति के साथ तिब्‍बतीी भोजन को भी चखने का मौका मिला। सबसे पहले त्सो पैमा बौद्ध मठ सामने था। अदभुत गुरू पद्मसंभव की प्रतिमा झील की तरफ समाधी लगाए बैठी थी।


 उसके सामने एक छोटे से फूड ज्वाइंट में  थैंथूक( ट्रैडिशनल डिश फार मांक्स) का स्वाद लिया। सोलन शहर की एक चुनिंदा आंटी की शाप यह सूपी डिश बनाने में माहिर थी और कालाघाट में भी इसका स्वाद चखा था, लेकिन यहां का टेस्ट कुछ अलग ही था।


 

१- बौद्ध संस्कृति

 मठ में झील से जुड़ी बौद्ध संस्कृति से ज्ञात हुआ कि कश्मीर के नरेश राजा इंद्र बोधी के पुत्र त्रिकालदर्शी बोद्ध गुरु पदमसंभव साधना के लिए यहां आए थे। तत्कालीन मंडी नरेश अर्शधर की पुत्री मंधवी उनकी शिष्या बनी और बाद में पत्नी भी उनका अनुसरन करने लगी। तरह तरह की अफवाहों के बीच राजा ने इसे अपमान समझा और पदमसंभव का जला देने का हुक्म जारी किया। रिवालसर में पद्मसंभव को जलाया गया। मगर आग की लपटें चमत्कारिक ढंग से जल रूप में तबदील हो गईं और झील बन गई।जिसका नाम पदम संभव झील हुआ। बौद्ध मतावलंबी रिवालसर को सो-पेमा भी कहते हैं। बताया जाता है कि पद्मसंभव बड़े तांत्रिक व महान शिक्षक रहे। वह तिब्बत में बौध धर्म की स्थापना के लिए यहां से उड़ान भरकर गए। और कहते हैं कि झील में तैरने वाले सरकंडों के ऊपर बैठक वह झील घूमते हैं। जिसके दर्शन पुण्य माने जाते हैं।  गोम्या में पदमसंभव की विशाल मूर्ति है । दो बड़े दीपक जिनमे कई किलो घी समां जाता है।  एक ऐतिहासिक गुफा पड़ोस में है, जिसके अंदर चट्टान बोद्ध लिपि में मंत्र उकेरे गए हैं। दिलचस्प यह है कि भूटान वालों की एक मानेस्टरी यहां है।

 

०२- हिंदू संस्कृति
झील के एक छोर में महर्षि लोमेश का मंदिर सच में अद्भुत है। वहां से झील का नजारा ऐसा है कि मानों स्वर्ग में आ गए हों।हिंदू मान्यता के मुताबिक रिवाल्सर का पुराना नाम हृदयलेश है। कुछ विदों से चर्चा करने पर पता चला  कि स्कंद पुराण के हिमबान खंड के प्रथम, द्वितीय और तृतीय अध्यायों में हृदयलेश का वर्णन लोमेश ऋषि की तपस्थली के रूप में आता है। हृदयलेश यानी झीलों का राजा। दंत्त  कथाओं के मुताबिक लामेश ऋषि जब तपस्य के लिए घूम रहे थे उनकी नजर हृदयलेश यानी रिवालसर झाील पर पड़ी। चारों तरफ झील किनारे हरे भरे पेड़ थे। पानी अत्यंत शुद्ध। अपसरायें जलक्रीड़ाएं कर रही थी। वह अत्यंत प्रभावित हुए। तभी उन्होंने झील के किनारे स्नान किया और आराम करने बैठ गए। लेकिन उन्हें नींद आ गई। नींद में उन्हें भस्म लपेटे, रूद्राक्ष मालाओं के साथ दंपत्ति सपने में दिखी और लोमेश ऋषि से यहां तप करने के लिए कहा। तीन माह तक उन्होंने कठोर तप किया। इंद्रदेव भयभीत हो गए। उन्होंने लामेश ऋषि की तपस्या भंग करने के लिए कई बाधाएं पैदा की। लेकिन कामयाब नहीं हुए। शिव पार्वती ने तपस्या से प्रसन्न हुए और दोनों झील में नौकयान करने लगे।   लोमेश ऋषि ने सब देखकर शिव स्तुती का पाठ शुरू कर दिया। शिव ने प्रसन्न होकर ऋषि को पर्यन्त जीवित रहने का और मनोबल से वायु में भ्रमण करने का वरदान दिया। जब लोमेश ने भगवान शिव से इस झील का महत्व जानने का प्रयास किया तो भगवान ने कहा कि पार्वती ही इसका महत्व बता सकती है। तभी पार्वती के संवाद के दौरान भगवान विष्णु, ब्रह्मा, इंद्रादि देवता तीर्थराज प्रयाग और पुष्कर जैसी नदियां भी यहां प्रकट हुई और ब्रह्मा, विषणु, गणेश, सूर्य और शिव पार्वती सहित पांचों देवताओं ने भूखंड में निवास कर झील में तैरने लगे तथा यहां पर इन टिल्लों बेड़ों में निवास करने का निश्चय किया। जिस कारण रिवाल्सर को पंचपुरी भी कहते हैं। यह सब जानने के साथ साथ लोगों पूरी चनों और हलवे आदि का प्रशाद भी खिलाया।


सिक्ख धर्म:
्रमंडी के राजा जोगेंद्र सेन द्वारा सन 1930 में रिवालसर गुरुद्वारा बनाया है। इसके पूरे साक्ष्य रिवालसर झील में मिलते हैं।  रिवालसर गरुद्वारा कुछ ऊंचाई पर स्थित है। एक सौ ग्यारह सीढियां चढ कर या फिर संकरी पक्की सड़क से भी वहां पहुंच सकते हैं। गुरूद्वारे में मेहनत से गढे सुंदर पत्थरों का खूबसूरती से प्रयोग किया गया है। जो अंदरूनी कक्ष को सरलता व कलात्मकता भारी भव्यता प्रदान करते है। गुरुद्वारा परिसर काफी खुला है, जिसमे लगभग एक श्रद्धालु एक समय में ठहर सकते हैं। यहां हमेशा ठंडी बयार चलती रहती है। लंगर चौबिस घंटे रहता है। सोचा थोड़ा चख लिया जाए। बिलकुल अमृतसर के गोल्डन टैंपल की तरह का स्वाद। ज्योति मेरी पत्नी अमृतसर से है। उसके घर भी स्वर्ण मंदिर के बिलकुल साथ है। तो वहां अकसर लंगर खाना होता है। ....तो रिवालसर से जुड़ा एक और संधर्भ है, जो कि सिक्ख इतिहास से है।  कहते हैं कि सिखों के दसवें गुरु गोविंदसिंह, हिमाचल प्रवास के दौरान वर्ष 1758 में यहां आए थे। बाईस धाराओं के राजाओं से मिलकर मुगल सम्राट औरंगजेब से टक्कर लेने के बारे में यहां मंत्रणा व युद्ध योजनाएं परवान चढ़ाने पर भी विचार हुआ। गुरु यहां लगभग एक माह रहे। बतातें है कि जब गुरु ने झील की प्रदक्षिणा की, तो पदमसंभव सरकंडों में तैर रहे टीलों पर सवार होकर ने प्रकट होकर गुरु को कार्य पूर्ण होने का आशीर्वाद दिया।



.........बेशक झील में घास से टीले तैरते देखे जा सकते हैं। सीसू मेला के अवसर पर बोद्ध श्रद्धालु इन पर परना चढाते हैं। यह भी मान्यता है कि जब लामा पूजा करते हैं तो ये बेड़े स्वयं मंदिर की झील के सामने लग जाते हैं। श्रद्धालु इनमे पदम संभव की आत्मा का वास मानते हैं। तो हिंदू धर्म इन टीलों में शिव पार्वती समेत पांच देवताओं का वास मानते हैं और सिक्ख गुरू की आध्यात्मिक ताकत। लेकिन इन टीलों के तैरने में वैज्ञानिक तर्क भी जुड़ा है। प्राकृतिक फ्लोटिंग पौधों की जड़ों या अन्य कार्बनिक पदार्थों मिलकर काई की एक चट्टाई बना लेते हैं। चूंकि पानी गहरा होता है। जड़ें नीचे तक नहीं पहुंचती हैं, इसलिए उलझी जड़े ऑक्सीजन में अपने ऑक्सीजन का इस्तेमाल करते हैं और जीवंत रहती हैं।
 

एट द एंड:


   अब रिवाल्सर की परिक्रमा मठ, मंदिर और गुरूद्वारा के दर्शन करके पूरी हो चुकी थी। सरकंडों के दर्शन भी हो गए थे। बार बार खाना खाने के बाद अब भगवान से इच्छा थाी कड़क काली काफी और वह भी पूरी हो गई। अंतिम छोर पर मोनेस्टरी के गेट के साथ एक माई टाइप आफ कैफे ईमेहो बेरिस्ता मिला। जिसे एक किन्नौरी युवक ज्ञान अपनी फैमली के साथ चला रहा था। इंटीरियर बिलकुल मेरे टेस्ट का। ईटों की साइड दिवारें, किताबें, शेड्स, रैक छत पर टंगे प्लास्टि के पानी से भरे पारदर्शी बैग और अपार्टमेंंट जैसे हाल के साथ ओपन किचन। जिसमें वेस्टर्न फूड, तरह तरह के स्पाइसेस। डिफरेंट फूड और बेहतरी और आधुनिक काफी मशीन। इसी बीच बारिश काफी तेज हो गई। शाम सात बजे की आखरी बस मंडी के लिए पकडऩी थी। लिहाजा पांच से सात बजे का समय इसी कैफे में बारिश के बीच गुजारा और करीब चार एस्सपरेसो मैक्यिैटो के शाट की तृप्ति के बाद वापसी हुई।

अखिलेश महाजन
















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