रविवार, 7 जनवरी 2018

..... एक प्रिय मित्र को स्नेहवाद


जन्नत है यह। प्रकृति मानो पूरे यौवन से निखरी है। घने पेड़ों से लदी कामुक पर्वतश्रृंखलाएं बाहें फैलाए बर्बस अपने सौंदर्य के मोहपाश में बांध रही है। सूरज की लालिमा तपिश लिए औंस की परत को पिघला चुकी हैं। बंूद बूंद पानी से नहाकर कुदरत का नजारा ताजी हरियाली की चादर ओढ़कर शांत है। निशब्द।......क्षणिका
..... एक प्रिय मित्र को स्नेहवाद। सृष्टि के अदभुत नजारे की झलक का जरिया बनने के लिए। आखिरकार खूब टालमटौल के बाद रविवार यहां जाना हो ही गया। वैसे भी पहाडिय़ों को मापने का सनकपना आसानी से नहीं छूटने वाला। तो चैलचौक से करीब बीस किलोमीटर की दूरी पर पहुंच गए सरोआ। उधर, जानना चाहा तो स्थानीय लोगों को मालूम नहीं कि सुंदर स्थली का नाम सरोआ क्यों पड़ा। यहां एक प्राचीन जालपा मंदिर भी है। कहते हैं कि जालपा माता पानी से उत्पन्न हुई है। सर मतलब तालाब, सरोवर या स्रोत हो सकता है इसकी कारण नाम सरोआ हो। खैर यह एक वर्जिन ललनटाप स्टेशन है। बेहतर भी है। बेढंगी और शोरोगुल की सोच से दूर। लेकिन सच में बसने के मन करता है। एक छोटा सा लकड़ी की काटेज। खूब तरह तरह किताबें, हरी भूरी काफी, आला किस्मों की चाय और कुकिंग के लिए बड़ा कीचन और खेतों से निकलती ताजा सब्जियां और उनका साथ

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